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महामारी की सरहदें कोबिड-19 और प्रबासी श्रमिक / अनामिका प्रियदर्शिनी एवं गोपाल कृष्ण द्वारा संपादित ; अशोक झा एवं प्रणब झा द्वारा अनुवाद . — दिल्ली : आकार बुक्स, २०२३.

२४६ पे. : चित्र., तस्वी. ; २३ सेमी

ग्रंथसूची संबंधी संदर्भ शामिल हैं

आभार -- भूमिका: क्या अन्तरराष्ट्रीय प्रवासियों के देशवापसी से फैली वायरस जनित रोग कोरोना की महामारी? / गोपाल कृष्ण -- 1. महामारी की सरहदें / रणबीर समाद्दार -- 2. कोरोना वायरस और विश्व अर्थव्यवस्था : पुराना ध्वस्त हो चुका है, नये का निर्माण संभव नहीं / रवि अरविंद पालत -- 3. कोविड-19 की दुनिया में प्रवासी मज़दूर, अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और लॉजिस्टक / रितज्योति बंद्योपाध्याय -- 4. शरीर पर पहरा : कोरोना लॉकडाउन में प्रवासियों का क्या करें? / बद्री नारायण तिवारी -- 5. भूख, अपमान और मौत : कोविड-19 के समय प्रवासी श्रमिकों को ख़तरा / उत्सा सरमिन -- 6. महामारी में सड़कों पर चलते श्रमिकों के साथ चल रही है उनकी असुरक्षा और उनका डर / मनीष के. झा एवं अजीत कुमार पंकज -- 7. कोविड-19 लॉकडाउन के बाद बिहारी प्रवासियों की घर-वापसी / अनामिका प्रियदर्शिनी एवं सोनमणि चौधरी -- ৪. संग्राम तुडु का अचानक दिखना / रजत रॉय -- 9. कोरोना के समय में जीवन के कुछ रंग / माधुरीलता वासु एवं शिवाजी प्रतिम बासु -- 10. प्रवासी श्रमिक और महाामारी के दौर में सेवा की नैतिकता / अंबर कुमार घोष एवं अनसुआ बासु राय चौधरी -- 11. सामाजिक दूरी, "मुझे मत छूना" और प्रवासी श्रमिक / इशिता डे -- 12. घर के नज़दीक पहुँची सीमा : भारतीय बँटवारा, 2020 / समता बिस्वास -- 13. नोवेल कोरोना वायरस और जैंडर अतिक्रमण / पौला बनर्जी -- 14. लंबी यात्रा पर अपने घर को जाने वालों की गिनती और लेखा-जोखा / साबीर अहमद -- 15. कोलकाता में प्रवासी श्रमिक : एक राराज्य दूसरे राज्य से कैसे सीख सकते है?: स्वाति भट्टाचार्य एवं अभिज्ञान सरकार -- लेखकों की सूची

"कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए भारत सरकार ने 24 मार्च 2020 को सम्पूर्ण लॉकडाउन का फैसला लिया जिसका नतीजा यह हुआ कि देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे प्रवासी श्रमिक जल्द-से-जल्द अपने घर पहुचने के लिए बेताब हो उठे। जितना भी सामान वे ले सकते थे उसे अपने सिर पर लादकर, अपने बच्चों और घर के बूढ़े सदस्यों को साथ लेकर भूखे-प्यासे तपती धूप की परवाह किए बगैर अपने घर के लिए पैदल ही रवाना हो गए क्योंकि परिवहन के सारे साधन बंद कर दिए गए और अलग-अलग राज्यों ने भी अपनी सीमाएँ सील कर दी थीं। इन सबके बीच लोगों के जेहन में जो सवाल बार -बार उठ रहा था, वह यह था कि वहाँ उनके काम के शहर या जिले में प्रवासी मजदूरों के लिए पर्याप्त भोजन, पानी और अश्रय की व्यवस्था की जाती तो क्या इस मानवजनित त्रासदी से बचा जा सकता था? प्रवासी श्रमिकों के नियोक्ताओं ने अपनी दुकानें बंद कर दीं। किराया नहीं चुका पाने के अंदेशे से श्रमिकों को मकान-मालिकों ने मकान से निकाल दिया। उन्हें डर था कि उनके पास जो भी बचत थी वह शीघ्र ही समाप्त हो जाएगी। भूख से मर जाने के डर ने इन श्रमिकों को सैकड़ों मील की ऐसी पैदल यात्रा पर चलने को बाध्य किया जिसकी उन्होंने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। उन्हें पैदल चलने को इसलिए बाध्य होना पड़ा क्योंकि परिवहन के सारे साधनों को बंद कर दिया गया था। उनके एक तरफ कुआँ था, तो दूसरी तरफ खाई, एक ओर भूख से मर जाने की नौबत तो दूसरी ओर महामारी का डर। भारतीय उप-महाद्वीप में आजादी के बाद हुए बँटवारे के दौरान जिन लोगों का विस्थापन इसके मैदानी इलाके में हुआ संभवतः उसके बाद से ऐसा पलायन कभी नहीं देखा गया था, जब लोग बिना खाए, बिना सोए और ठहरने की कोई जगह के बिना निरंतर पैदल चलते रहे। कोलकाता रिसर्च ग्रुप का यह प्रकाशन पत्रकारों, सामाजिक वैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, कानून की प्रैक्टिस करने वालों और विचारकों के समकालीन ख्यालों का प्रस्तुतीकरण है जिनमें भारत में महामारी के नैतिक और राजनीतिक परिणामों को रेखांकित किया गया है, विशेषकर, भारत के प्रवासी श्रमिकों के लिए। इस पुस्तक को उस समय लिखा गया जब यह संकट शुरू हुआ था और इसका अंत नजर नहीं आ रहा था। यह किताब उस समय का निबंध है।"-- पुस्तक आवरण

978-93-5002-743-1 : ₹ 595.00


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